शिक्षा , स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र

क्या आप हवा के प्रवाह को नियन्त्रित कर सकते हैं ? उत्तर होगा नहीं । हवा मंद – मंद समीर के रूप में भी चलती हैं और तेज तूफान – अंधड़ के रूप में भी चल सकती हैं । हवा कैसे चले ? ये हवा की मर्जी हैं । नदी की जल धारा कल – कल , इठलाती ,बलखाती प्रवाह मान है तो कहीं वेगवती होकर भयंकर गूँज के साथ आगे बढ़ रही हैं । नदी उद्दण्ड़ हैं , अपना रास्ता खुद बनाती हैं , हर बार अपना मार्ग बदल देती हैं । जल प्रवाह के बीच एक अवरोध लगा दें तो वह दूसरा रास्ता अखत्यार कर लेता हैं । और पंछी , पंछी कितने स्वछन्द होते हैं ? यहां से उड़े , वहां बैठे और वहां से उड़ेंगे तो ना जाने कहां बैठेंगे ? पंछी दूर गगन में उड़ान भरते हैं तो कभी दूर देश के सफर पर निकल पड़ते हैं । अगर ये जानना हैं कि स्वतन्त्र कौन हैं तो हवा , बहता दरिया और पंछी इन तीनों को देखना चाहिए।
इंसान ने इस गोल धरती पर आड़ी – तिरछी , सीधी और वक्र रेखाएं खींचकर सीमांकन कर दिया । इंसान ने समाज बनाएं , देश बनाएं और अपनी – अपनी व्यवस्थाएं बना दी । लेकिन पंछी , बहता दरिया और हवा , तीनों इन सब को नहीं मानते हैं । गुलजार सहाब ने बहुत खूब लिखा हैं —
“ पंछी , नदियाँ , पवन के झोकें , कोई सरहद ना इनको रोके ।
सरहदें तो इंसानों के लिए हैं – – – – – – ”
सरहदों को ना मानने वाले परिन्दें , बहते दरिया और हवा के झोकें पूर्णतः स्वतन्त्र हैं लेकिन उनकी जरुरतें , उनके समाज नहीं के बराबर होते हैं । इंसान जो सरहदों के बीच रहता हैं , समाज में रहता हैं , उसने अपने हिसाब से देश और समाज को चलाने के लिए व्यवस्थाएं बनायी हैं। इंसान ने केवल देश बनाने के लिए ही जमीन पर सीमाएं नहीं बनायी , उसने अपनी व्यवस्थाओं में भी सीमाओं की दीवारें खड़ी कर रखी हैं। जाति और धर्म की दीवारें , रंग और क्षेत्र की दीवारें । अलग – अलग व्यवस्थाओं में अलग – अलग प्रकार की दीवारें । अब सवाल यह हैं कि कौन सी व्यवस्था इंसान को अधिकतम स्वतन्त्रता दे सकती हैं ? क्या तानाशाही ? क्या राजशाही ? क्या लोकतन्त्र या फिर मिश्रित लोकतन्त्र ? सब तन्त्रों पर विचार करने से पहले एक किस्सा याद करना जरूरी हैं । किस्सा ये हैं कि एक आदमी सड़क पर चलते हुए अपनी छड़ी को चारों ओर घूमा रहा था। सड़क पर उसके पीछे चल रहे आदमी ने इस पर अपनी आपत्ति जाहिर की तो छड़ी वाला आदमी कहने लगा कि मैं स्वतन्त्र हूँ और छड़ी घूमाना मेरी स्वतन्त्रता हैं। यह सुनकर पीछे चल रहे आदमी ने कहा कि मान्यवर , आप निश्चित रूप से स्वतन्त्र हैं किन्तु आपकी ये स्वतन्त्रता वहां खत्म हो जाती हैं जहां से मेरी नाक शुरू होती हैं। ये किस्सा सीख देता हैं कि सभ्यताओं की शुरूआत से ही आजादी कायम रखने का एक ही सिद्धान्त रहा हैं कि हमें अपनी और दूसरों की नाक की परवाह करनी पड़ती हैं। राजतन्त्र में भी लोग कई बार खुद को आजाद महसूस करते थे। लेकिन यह हमेशा नहीं होता था क्योंकि राजे – महाराजे अक्सर अपनी ऊंची नाक के सामने किसी ओर की नाक को कोई अहमियत नहीं दिया करते थे और वे उसे बचाना तो दूर , देखना भी पसन्द नहीं करते थे। इतिहास गवाह हैं , जब राजाओं ने अपनी जनता की आजादी छीन ली और स्वेच्छाचारी बन गये। यह दूनिया के हर देश में कभी ना कभी ज़रूर हो चुका हैं। इसका विरोध हुआ और क्रान्तियाँ हुई । क्रान्ति हमेशा बदलाव करती हैं । क्रान्तियों ने तन्त्र बदल दिये। इंग्लैण्ड़ में मिश्रित लोकतन्त्र तो फ्राँस में पूर्ण लोकतन्त्र । रुस में कम्यूनिस्ट सरकार की एक अलग व्यवस्था आ गयी थी। इंसान खुद सीमाएं तो बनाता हैं लेकिन अपने स्वार्थ के लिए उन्हें तोड़ भी देता हैं फिर वे सीमाएं चाहे उसके समाज की हो या किसी देश की हो। इतिहास गवाह हैं जब साम्राज्यवादी ताकतों ने अपनी हदों से बाहर जाकर , दूसरे देशो  पर कब्जा कर लिया और वहाँ के लोगो की आजादी को छीन लिया। सिकन्दर से लेकर हिटलर तक बहुत सारे उदाहरण हैं लेकिन यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद को देखे तो ब्रिटेन , पुर्तगाल , स्पेन और फ्राँस ने दूनिया के बड़े हिस्से पर अपना कब्जा कर रखा था। इंग्लैण्ड़ के बारे में प्रचलित हो गया था कि अंग्रेजों के राज में सूर्य भी अस्त नहीं होता। लेकिन अमेरिका इंग्लैण्ड़ के कब्जे से मुक्त हुआ और दूनिया का परिचय पहली बार पूर्ण लोकतन्त्र से हुआ। हमारा देश  भी इंग्लैण्ड़ के आधीन था , आजादी के लिए हमने 1857 से लेकर 1947 तक एक लम्बी लड़ाई लड़ी। मंगल पाण्ड़े , रानी लक्ष्मी बाई , चंद्रशेखर  आजाद , सरदार भगत सिंह और भी ना जाने कितने वीर – वीरांगनाओं का बलिदान देकर और विश्व को अहिंसात्मक संघर्ष  का रास्ता दिखाकर आजादी पायी। आज देश में लोकतन्त्र हैं। कभी – कभी लोकतन्त्र से चुनकर आया व्यक्ति भी अपने लोगो की आजादी छीनकर तानाशाह  बन जाता हैं और ज़ुल्म करने लगता हैं। हिटलर , मुसोलिनी , स्टालिन , सद्दाम हुसैन , मुअम्मर गद्दाफी जैसे लोग उदाहरण हैं। इन लोगो का अंजाम बुरा हुआ और इनके देशों  में अब या तो लोकतन्त्र हैं या फिर लोकतन्त्र के लिए ये देश संघर्षरत हैं।
आज वर्तमान में जनमानस को आजादी देने के लिए , सभी की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए दूनिया भर में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया जा रहा हैं। सभी प्रकार के तन्त्र अपनाकर , आजमाकर हम विश्व  के लोग इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ही हैं। आज एक सामान्य पढ़ा – लिखा इंसान भी जानता हैं कि लोकतन्त्र का अर्थ — ‘‘ जनता का , जनता के लिए , जनता द्वारा शासन  होता हैं।‘‘ लेकिन लोकतन्त्र की भी सीमाएं हैं। क्या इंसान इसकी सीमाओं को नहीं तोड़ेगा ? सवाल यह भी हैं कि क्या लोकतन्त्र हमेशा  हमारी स्वतन्त्रता को कायम रख सकेगा ? दो नमूने भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था से लिये जा सकते हैं। एक —- लोकतान्त्रिक चुनाव में भाग लेने वाली कुछ पार्टियाँ ऐसी हो चुकी हैं कि उन्हें राजनैतिक दल के बजाय प्राईवेट कम्पनी कहना ज्यादा ठीक हैं। एक व्यक्ति या एक परिवार सी ई ओ की तरह पार्टी अध्यक्ष का पद लेकर पार्टी चला रहा हैं। कहने को सब नेता खुद को समाजवादी बताते हैं लेकिन समाजवाद अब परिवारवाद में बदल दिया इन्होंने। दो —- अधिकांश  जन प्रतिनिधियों का कुर्सी प्रेम या कहें कि कुर्सी चस्पा लालच इतना बढ़ गया हैं कि वो अब दूसरों की नाक की परवाह नहीं करते और देश  के कोने – कोने में, छोटे – छोटे क्षत्रपों के रुप में ऐसे खड़े हो गये हैं कि उस क्षेत्र में जहां उनका प्रभाव हैं , मानो की वो वहां के राजा हैं। और फिर वही पूर्व लिखित बात कि राजा कब और किसकी नाक की परवाह करते हैं।
अब क्या होना चाहिए ? क्योंकि यह तो स्थापित सत्य हैं कि स्वतन्त्रता की रक्षा लोकतान्त्रिक मूल्यों द्वारा ही हो सकती हैं। यह भी सत्य हैं कि आजादी के लिए अपनी और दूसरों की नाक पर चोट नहीं पहुँचनी चाहिए। तब कैसे होगा ? शायद शिक्षा  हमें कोई रास्ता दिखा सके। दूनिया भर के विचारक चाहे वो सुकरात हो या रुसो , विवेकानन्द , पी0 वी0 कृष्णा मूर्ति  हो सब मानते थे कि मनुष्य  को स्थायी रुप से केवल शिक्षा  द्वारा ही बदला जा सकता हैं। शिक्षित  मनुष्य  स्वतन्त्रता का महत्व समझता हैं और वह दूसरों का महत्व भी समझता हैं। वह हवा के झोकें की तरह अपने ज्ञान को चारों ओर फैला सकता हैं। बहते दरिया सा संस्कृतियों को साथ लेकर उनमें मेल कर चल सकता हैं। उसके विचारों की उड़ान आजाद परिन्दें जैसी होती हैं। वह लोकतान्त्रिक होता हैं , स्वतन्त्र होता हैं। कह सकते हैं कि शिक्षा  से लोकतन्त्र और लोकतन्त्र से स्वतन्त्रता । भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने एक बार कहा था —- “ शिक्षा मानव को बन्धनों से मुक्त करती हैं और आज के युग में तो यह लोकतन्त्र की भावना का आधार भी हैं । जन्म और अन्य कारणों से उत्पन्न जाति एंव वर्ग – वर्ण की विषमताओं को दूर करते हुए मनुष्य को इन सब से ऊपर उठाती हैं ।”

( राम वशिष्ठ )
ऊर्जा विभाग में कार्यरत
खटीमा रोड़ सितारगंज
9897720321 , 7417929572

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